रविवार, 8 मार्च 2009

नारी और नारे : एक हास्यास्पद समानता


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दिल्ली चलो

सुभाष चन्द्र बोस ने यह नारा दिया था। मगर आज यह नारा आज के गाँव और छोटे-बड़े शहरों के नारियों के लिए सही साबित हो रहा है. इन्हें बहला-फुसलाकर या फिर प्यार करने का नाटक करके या फिर नौकरी दिलाने के बहाने दिल्ली ले जाकर बेचकर अपना उल्लू सीधा करने वालों की कोई कमी नहीं.

आराम हराम है

कभी यह नारा भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवारलाल ने दिया था. परन्तु आज यह लागू होता है देश की नारियों पर. आज नारियों पर दोहरी जिम्मेवारी आ गई है. वह घर में भी काम करती है और दफ्तर के काम भी संभाल रही हैं. फिर भी नारी का संकट कम नहीं हुआ है. नारी काम करने वाली एक मशीन बन गई है. उनके लिए आराम हराम है।

उठो! जागो! और लक्ष्य प्राप्त करने तक रूको मत

वैसे तो यह नारा उपनिषद से लिया गया है। परन्तु इसका प्रयोग विवेकानंद करते रहे हैं. आज नारी के रोज़-रोज़ की ज़िन्दगी यही रह गई है--उठो! जागो! और लक्ष्य यानी कि जब तक कि मृत्यु नहीं प्राप्त होता, तुम अपने पति और बच्चे की भलाई के लिए खटती-मरती रहो.

करो या मरो

अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी ने यह नारा कभी अंग्रेजों के खिलाफ दिया था. हम चंद महिलाओं को देखकर नारी के उत्थान की चाहे जितनी बातें कर लें नारी के लिए आज भी दो ही विकल्प हैं---या तो जो मैं(पुरुष) कह रहा हूँ वह करो या फिर मरने के लिए तैयार रहो। चलती रेल, बस, सड़क, दफ्तर, घर या फिर वैश्यालय--हर जगह वह बलात्कार, यौन उत्पीडन, दहेज़ हत्या की शिकार हो रही हैं. हर जगह वह हुकुम का गुलाम बन कर रह गई हैं।

इन्कलाब जिंदाबाद!

यह नारा सबसे पहले क्रांतिकारी भगत सिंह ने दिया था. आज तमाम समस्यायें नारियों के साथ वहीँ का वहीँ हैं. परन्तु उनके लिए एक ढकोसले के रूप में आया है---अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस. ३६४ दिन नरक में जीते रहो और एक दिन सड़क पर निकलकर नारे लगाओ--- इन्कलाब जिंदाबाद!

1 टिप्पणी:

  1. रंगों के त्योहार होली पर आपको एवं आपके समस्त परिवार को हार्दिक शुभकामनाएँ

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    चाँद, बादल और शाम
    गुलाबी कोंपलें

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